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मेरे गुरुदेव

जीवनचरित

सत्पुरुष श्री मंगतरामजी महाराज

सोमराज गुप्त

संगत समतावाद (रजि०)

समता योगाश्रम
जगाधरी – 135003
हरियाणा

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सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण…………..1981
द्वितीय संस्करण…………1997
तृतीय संस्करण …………2002 
चतुर्थ संस्करण…………..2010
द्वारा संगत समतावाद, (रजि०)








मुद्रक :-
राजेश प्रिंटर्स,
7321-22, आराम नगर, पहाड़गंज 
कुतुब रोड, नई दिल्ली 110 055

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समता

अपार शक्ति

महामन्त्र

ब्रह्म सत्यं

निरंकार अजन्मा अद्वैत

पुरखा सर्वव्यापक कल्याण मूरत

परमेश्वराय नमस्तं

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आमुख

श्री सद्गुरुदेव महाराज के शिष्यों की दृष्टि में उनका जीवन निराकार आत्मा की साकार लीला मात्र है, मौन शब्दस्वरूप परमेश्वर की मानवीय अभिव्यक्ति है। यह ऐसा जीवन है जो कि मानव की सदा से संतप्त आत्मा को राहत देता रहेगा, उसके भटकते जीवन की रहबरी करता रहेगा। स्वयं सर्वत्यागी होकर भी उन्होंने आम जिज्ञासु के लिये घर-गृहस्थी छोड़ने की जरूरत न समझी, बल्कि घर में ही रहकर सब्र और सत्परायण जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। गुरुदेव का विचार था कि बिना साधना और आत्मज्ञान के बाहरी त्याग जीव के पतन का कारण बन सकता है; इसलिये उसे सुख-दुःख के द्वन्द्वों से अलग रहकर आजज़ी और धैर्य से जीवन व्यतीत करना चाहिये इस तरह वह अपनी आत्मिक उन्नति सहज में ही कर सकेगा और देश और समाज के कल्याण का कारण बन सकेगा। उनका निश्चित मत था कि सामाजिक उन्नति, धर्म की जाग्रति और विश्वशान्ति का मूल आधार व्यक्ति की आत्मिक उन्नति ही है। इस उन्नति के पाँच नितान्त साधारण, परन्तु सारगर्भित साधन हैं - सादगी, सेवा, सत्, सत्संग और सत्स्मरण।

इस परमपुरुष की दृष्टि समभाव की दृष्टि थी; उस दृष्टि में समस्त द्वन्द्व और विषमतायें आत्मरूप सत्ता में विलीन हो जाती हैं। इस समताज्ञान के जीते-जागते प्रमाण 'श्री समताविलास' और 'श्री समताप्रकाश' सद्ग्रन्थ हैं।

सत्पुरुषों के जीवन का अध्ययन एक प्रकार से उनका दर्शन करना है। यही एक मार्ग है अपने मन में सत्विश्वास और सत्परायणता के भाव पैदा करने का।

प्रस्तुत पुस्तक गुरुदेव के दिव्य जीवन को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास है । यह लेखक के कई वर्षों के गहरे चिन्तन एवं अनथक परिश्रम का परिणाम है। इस पवित्र कार्य का श्रेय श्री सोमराजजी गुप्त को है । लेखक की लेखनी ने सद्विवेक और अपार सत्श्रद्धा के

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भावों से इस सत्पुरुष के पहेली जैसे जीवन को सन्मार्ग के पथिक के सामने ऐसे ढंग से रक्खा है कि भाव और विचार हृदय पर अंकित होते-से दिखाई देते हैं ।

आने वाली पीढ़ियाँ इस पवित्र प्रामाणिक ग्रन्थ से उत्साह, प्रेरणा एवं सन्मार्ग को रहबरी प्राप्त करेंगी ।

इस पुस्तक को निष्ठापूर्वक लिखने के लिए प्रेमी भाई सोमराजजी गुप्त के हम आभारी हैं । मुद्रण कार्यों में निष्काम सहायता के लिये श्री राजेन्द्रलालजी अग्रवाल का नाम उल्लेखनीय है ! छायाचित्रों को तैयार करने में श्री रमेशजी चावला ने बड़ी तत्परता से निष्कामभाव युक्त प्रेम से सेवा की है। उनका कार्य भी सराहनीय है। हम इन सब महानुभावों को हृदय से धन्यवाद देते हैं।

पाठकों से निवेदन है कि यदि उन्हें इस प्रयास में कोई त्रुटि नजर आये तो वे कृपया सूचित करें ताकि अगले संस्करणों में उनका समुचित निदान किया जा सके ।
समता योगाश्रम                      नरेन्द्र कुमार जिन्दल
जगाधरी, अक्तूबर 1981         संयोजक सेवादार, 
                                           संगत समतावाद,

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आभार

गुरुदेव के जीवनकाल में उनकी जीवनी लिखने की बात एक दफ़ा उठी थी यदि वह लिखी जा पाती तो वह सही अर्थों में एक प्रामाणिक जीवनी होती । गुरुदेव के साधनाकाल के सम्बन्ध में बहुत ही कम जानकारी प्राप्त हो सकी है। उनके आस-पास रहने वाले उनके वाह्यजीवन को चर्चा तो कर सके हैं, लेकिन गुरुदेव के आन्तरिक जीवन के उतार-चढ़ाव इन लोगों के लिये बन्द किताब हैं। इसलिये बहुत प्रयत्न करने पर भी इस कमी को पूरा नहीं किया जा सका। इस जीवनी के प्रारम्भिक अध्यायों के आधार वे इखरे-बिखरे संकेत हैं जो कि गुरुदेव ने यदा-कदा अपने शिष्यों को दिये थे। ये संकेत इतने अपर्याप्त हैं कि उनके बलबूते पर गुरुदेव के साधनाकाल को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता। कम से कम लेखक तो इन प्रारम्भिक अध्यायों को अधूरा ही कहेगा।

लेखक की भरसक कोशिश रही है कि यह जीवनी हर दृष्टि से प्रामाणिक हो फिर भी हो सकता है कि कुछ ग़लतियाँ रह गई हों। यदि पाठक ऐसी ग़लतियों के सम्बन्ध मे लेखक को सूचित कर सकें, तो लेखक उपकृत होगा ।

"मेरे गुरुदेव " लिखने में अनेक प्रेमियों का सहयोग मिला जिसके लिये लेखक उनका आभारी है इस सम्बन्ध में श्री अमोलकराम, श्री दौलतराय, श्री नरेन्द्रकुमार, श्री ओमकपूर और — विशेषकर - भगत बनारसीदासजी के नाम उल्लेखनीय हैं। श्री ओमकपूर ने जीवनी को दो बार बड़े सब्र से सुना और अनेक सुझाव दिये। भगतजी के संस्मरण के बिना तो यह जीवनी लिखी ही न जा सकती थी ।

लेखक अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री देवराज गुप्त का एहसानमन्द है। उन्हीं के कारण वह गुरुदेव के चरणों में जा सका, और उन्हीं की प्रेरणा से वह समतासिद्धान्त का मनन कर सका। लेखक के विचारों पर उनका परोक्ष, परन्तु व्यापक प्रभाव रहा है।

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श्री कृष्णदत्त पालीवाल, हिन्दी विभाग, हिन्दू कालेज, दिल्ली, तथा श्री एस० पी० शुक्ल, अंग्रेजी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली ने भाषा सम्बन्धी अनेक सुधार किये। श्री शिवनारायण शास्त्रो, संस्कृत विभाग, किरोड़ीमल कालेज, दिल्ली ने श्लोकरचना में लेखक का मार्गदर्शन किया । इन तीनों मित्रों के प्रति लेखक आभार व्यक्त करता है ।

लेखक की भाषा में कहीं-कहीं 'सत्विचार', 'सत्नियम', 'सत्बुद्धि', आदि शब्द सहज में ही प्रवेश कर गये हैं । इस सम्बन्ध में उसे इतना ही कहना है कि गुरुदेव इन शब्दों का ऐसे ही उच्चारण करते थे; इसलिये ये शब्द उनके शिष्यों की भाषा के भी अंग बन चुके हैं। आषंप्रयोग व्याकरण के नियमों का अनुसरण करने के लिये बाध्य नहीं होते, वरन् व्याकरण को ही उनका अनुसरण करना पड़ता है :
लौकिकानां हि  साधूनामर्थं  वागनुवर्तते ।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति ॥

-उत्तररामचरित 2/20

स्वयं भगवान् भाष्यकार का भी कथन है :

दृष्टानुविधिश्च्छन्दसि भवति

महाभाष्य 1/2/5 वार्तिक 3

जिस लगन से प्रेमी भाई ओम कपूरजी ने प्रकाशन सम्बन्धी कार्य किया है वह उनकी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का द्योतक है। ओमजी लेखक की सराहना के नहीं, बल्कि उनके प्रेम के पात्र हैं ।

सोमराज गुप्त

अक्तूबर, 1981
ई-8 मॉडल टाउन, दिल्ली- 110009

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गुरुरूप संगत

                   को

                        सविनय समर्पित

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क्रम पृष्ठ

1. अध्याय-1    वह अद्भुत रूप.....................................1

2. अध्याय-2    मंत्रद्रष्टा...............................................9

3. अध्याय-3    मातृऋण...........................................29

4. अध्याय-4    सहजसमाधि......................................45

5. अध्याय-5    भक्तवत्सल........................................63

6. अध्याय -6    'तत्तवाणी परगट भई'...........................75

7. अध्याय -7    क़ातिलों के बीच...............................105

8. अध्याय -8    समताज्ञान का अवतरण.....................121

9. अध्याय -9   महामंत्र की महिमा.............................133

10. अध्याय -10  श्मशान में अमृतनिर्झर.....................143

11. अध्याय- 11  सत्संग.........................................173

12. अध्याय- 12  'लाली देखन मैं चली....’...................189

13. अध्याय- 13  कुछ प्रारम्भिक शिष्य.......................199

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14. अध्याय- 14  समतावाद.....................................213

15. अध्याय- 15  तप (क).......................................253

16. अध्याय- 16  तप (ख).......................................275

17. अध्याय- 17  सिद्ध या सुधारक............................309

18. अध्याय- 18  सम्मेलन – 1953..........................337

19. अध्याय- 19  महासमाधि...................................365

20. उपसंहार........................................................373

21. गुरुवन्दना.......................................................377

22. विनयः............................................................381

      परिशिष्ट- 1......................................................383

      परिशिष्ट- 2......................................................389