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ओ३म् ब्रह्म सत्यं

गीता ज्ञान अमृत

(पहला भाग)

श्लोकार्थ और व्याख्या सहित

कृत

नरसिंहदास लौ, जनकपुरी नई दिल्ली

पहली बार                                                                        संख्या:1100
जनवरी 1688                                                                  मूल्य: 3.00

मिलने का पता-

(1) एडीटर समता दर्पण, समता योग आश्रम,
        रिंग रोड, नरायणा, नई दिल्ली- 110028
(2) श्री नरसिंहदास लौ, सी-2 / सी-2/48
        जनकपुरी (पाकेट २), नई दिल्ली- 110058

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ज्ञान का सागर -भगवत् गीता

भारतवर्ष आदिकाल से अध्यात्म विद्या का गढ़ रहा है। इस पराविद्या की शिक्षा का प्रचार और प्रसार करने हेतु हमारे पूर्वज महर्षियों, तत्ववेत्ता महापुरुषों द्वारा अनेक धर्म, ग्रन्थ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, षटदर्शन, स्मृति, पुराण आदि भिन्न-भिन्न समय में प्रकट हुए। भगवान की लीलामयी रचना में एक समय में ज्ञान विशेष रूप में प्रकट होता है और समय बीत जाने पर वही ज्ञान शनैः-शनैः लुप्त हो जाता है। फिर कोई दूसरे महापुरुष शरीर धारण करके आते हैं और उसी ज्ञान को प्रकट करके उसका प्रचार करते हैं। गीता के चौथे अध्याय के आरम्भ में भगवान ने अर्जुन को कहा था कि यह ज्ञान कल्प के आदि में मैंने दिवसवान को दिया था, विवसवान ने मनु को और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया था। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग विद्या को राज ऋषियों ने जाना। हे अर्जुन ! वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक से लोप हो गया था। वही पुरातन योग मैंने तेरे लिए वर्णन किया है ।
       
महाभारत के समय को आप याद करें जब कौरव और पाण्डव पुत्रों में ईर्ष्या और द्वेष इतना बढ़ गया था कि राजा धृतराष्ट्र के पुत्र अति स्वार्थी होकर अपने चचेरे भाइयों के नाश के लिए योजनाएँ बनाते थे। जब उस काल के राजा का यह हाल था तो प्रजा कैसी होगी - "यथा राजा तथा प्रजा" - जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी होती है। इससे अनुमान होता है कि उस समय की जनता का जीवन भी धर्म अनुकूल नहीं था। लोग धर्म

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को भूलकर अधर्म और पाप कर्मों में लिप्त थे। इसीलिए पापियों के नाश और धर्म की स्थापना के लिए भगवान कृष्ण को जन्म ग्रहण करके आना पड़ा। अन्तर्यामी, त्रिलोकीनाथ, मायापति भगवान की आज्ञा अनुकूल महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें वेद- वाक्य "सत्यमेव जयते नानृतं" अर्थात् सत्य की ही जय होती है। न कि झूठ की - सत्य सिद्ध हुआ। पाण्डव पक्ष की जीत हुई और कौरव हार गये। देश में एक बार फिर धर्म और सत्य को जनता ने अपनाया। पाप कर्मों से तौबा की और सुख-समृद्धि से आनन्द प्राप्त किया।
    
 इस काल में श्री कृष्ण द्विपायन वेदव्यास बहुत बड़े विद्वान त्रिकालज्ञ ब्रह्म ज्ञानी महापुरुष थे उन्होंने वेद को चार भागों में रचा । षट्शास्त्र की रचना की और पुराण भी लिखे। महाभारत युद्ध की समाप्ति के उपरान्त उन्होंने महाभारत ग्रन्थ की रचना की। स्थूल बुद्धि से देखें तो वह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ सिद्ध होता है और सूक्ष्म बुद्धि से इसका विचार करें तो वही एक अनमोल अध्यात्म रत्न अनुभव होता है । मानव जीवन की अमूल्य शिक्षाओं का भण्डार दिखाई देता है। जैसे हमारा मानव शरीर ही वह कुरुक्षेत्र है जिसमें देवता और असुर सदा युद्ध करते हैं परन्तु विजय सत्य की होती है। पाण्डव पक्ष देवता और कौरव पक्ष असुर हैं। इसी महाभारत के मध्य में भगवान वेदव्यास ने भगवत् गीता को एक पर्व के रूप में रचा है। इसमें भगवान कृष्ण और अर्जुन को दो पात्र चुना। भगवान तो पूर्ण पुरुष हैं और अर्जुन एक जीव है। जीव को जीवन के संग्राम में जब निराशा होती है। वह मोह-ममता में ग्रसित हुआ बहुत शोकात्तुर और खेद युक्त होता है तब वह अपने आपको इष्ट या गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर देता है। सरल और सादा होकर अपने सखा गुरुदेव से आज्ञा की याचना करता है। अपनी अज्ञानता और अयोग्यता को स्वीकार करता है और प्रभु आज्ञा को जानने के लिए उत्सुक

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रहता है और बार-बार प्रार्थना करता है तब प्रभु जीव को जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के सारे साधन जो पहले हमारे धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं विस्तार पूर्वक अर्जुन के रूप में सुनाते हैं, इसीलिए गीता महात्म के रूप में निम्न श्लोक कहा गया है-
सर्वोपनिषदो   गावो   दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत ।।
अर्थात सारी उपनिषदें और धर्मग्रन्थ तो गायें हैं और गोपाल नन्दन भगवान श्री कृष्ण दूध दोहने वाले वाला हैं और पार्थ अर्जुन सुधीर भोक्ता (धीरज सहित भोगने वाला) वत्स बच्चा है और गीता का महान अमृत वह पावन दूध है जो कृष्ण द्वारा अर्जुन को पिलाया गया है। इसका सार अर्थ यह होता है कि महाभारत के युग तक हमारे देश और समाज में जितना ज्ञान अध्यात्म विद्या के विषय में एकत्र हो चुका था और जिसको समाज भूल गया था। उसी सारे ज्ञान को गीता जैसे एक छोटे-से गन्थ में वेदव्यास जी ने नवीन रूप में प्रकट कर दिया। इसी कारण गीता अध्यात्म ज्ञान का एक महान सागर है। अब तक संसार में भिन्न-भिन्न भाषाओं, अनेक रूपों में इसके अनुवाद करके विश्व के अध्यात्म विद्या प्रेमी इसका अध्ययन करते हैं और अपनी जिज्ञासा और पुरुषार्थ के अनुरूप उस सागर में डुबकी लगाकर ज्ञान रत्न निकालकर सुखी होते हैं और इस ग्रन्थ के गुणानुवाद गाते हैं ।
     
भगवत् गीता की इस विशेषता को मुख्य रखकर प्रभु प्रेरणा से तीस वर्ष पूर्व उर्दू भाषा में 6 भागों में गीता के श्लोकों का अनुवाद और व्याख्या सरल शब्दों में लिखी गई और छपवाकर प्रेमी भक्तों में धर्मार्थं बांटी गई। उसी गीता ज्ञान अमृत को हिन्दी रूपान्तर में जनता को भेंट करने के आदेश अपने सज्जन मित्रों और सत्संगी प्रेमियों से प्राप्त हो रहे हैं। इनका हिन्दी रूपान्तर लिखा जा रहा है, पहले नमूने के तौर पर हमारा मासिक पत्र समता सन्देश गीता अंक निकाल रहा है । आशा है कि सज्जन

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पाठकगण इसे पसन्द करेंगे। समय आने पर प्रभु प्रेरणा और सहायता से पुस्तक रूप में भी छप जायेगा ।
    
 इस महान प्रशंसा योग्य ग्रन्थ को आत्म विद्या से किस प्रकार सजाया गया है और किन-किन रूपों में दर्शाया गया है इस विषय में भी दो शब्द और प्रवान करें। आप सब सज्जन भली प्रकार जानते हैं कि जो मनुष्य अपने आप में पूरी तरह जागृत है, बाहोश और चेतन है वही जीवन में ठीक प्रकार से व्यवहार करता है। और जो मूढ़ और खल बुद्धि हैं और वरायनाम चेतन मानव हैं। वह पशु समान विचरते हैं। आपस में कलह-क्लेश, ईर्ष्या द्वेष और दुःख द्वन्द्व में जीवन नष्ट करते हैं। जिनको अपने आपकी होश नहीं और बुद्धि नहीं काम करती उनको लोग पागल कहते हैं। आजकल बहुसंख्या में प्राणी आत्म ज्ञान से वहीन हैं। इनका बर्ताव और व्यवहार पागलों जैसा होता है इसीलिए महात्मा लोग दुनिया को पागलखाना कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सबसे पहले अपने आपका अर्थात सत् सरूप आत्मा का ज्ञान आवश्यक है। इसीलिए भगवान ने दूसरे अध्याय में पहले अर्जुन को आत्मा का ज्ञान दिया है उन्होंने यह कहा कि अर्जन तु बातें तो बड़े बुद्धिमानों वाली करता है परन्तु इनके लिए शोक करता है जिनके लिए शोक नहीं करना चाहिए। शरीर एक जड़ मशीन है और आत्मा इसका चालक और मालिक है। वह चेतन पुरुष है, इसको शस्त्र काट नहीं सकते, पानी गीला नहीं कर सकता, आग जला नहीं सकती और वायु उसे सुखा नहीं सकती- वह तू आत्मा है।
    
आत्म ज्ञान सम्पन्न मनुष्य ठीक प्रकार से जीवन में विचरता है । सत् कर्म करता है । अपने धर्म और कर्तव्य को जानकर किया करता है । निष्काम रूप में सबकी सेवा करता है। सबको अपनी आत्मा जानता है इसीलिए तीसरे अध्याय में निष्काम कर्म योग के विषय में ज्ञान दिया गया है। कर्म के तीन प्रकार-कर्म, अकर्म

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और विकर्म बतलाए गये हैं और जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वहीं बुद्धिमान पण्डित और ज्ञानी हैं ऐसा कहा गया है।
    
वेद के कर्म काण्ड में अनेक प्रकार के सकाम और निष्काम यज्ञ कर्मों का वर्णन हुआ है इसलिए इन यज्ञ कर्मों का सरूप चौथे अध्याय में बतलाया गया है और निष्काम यज्ञ कर्मों की महिमा गाई गई है अन्त में यह कहा गया कि उपासना के अन्तर्गत प्राण विद्या के अनुसार कोई प्राण को अपान में हवन करते हैं, कोई अपान को प्राण में हवन करते हैं और इस प्रकार कोई-कोई प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं।
    
इसके पश्चात उपासना काण्ड का उपदेश पाँचवें अध्याय से आरम्भ होता है और वारहवें अध्याय तक निर्गुण सगुण उपासना और भक्ति योग का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है । 13 से 15 अध्याय में ब्रह्म ज्ञान का उपदेश है। सोलहवें अध्याय में देवी और आसुरी सम्पत्ति के गुण और प्रभाव का वर्णन है जिससे गीता ज्ञान के अधिकारी की पहचान होती है। सत्रहवें अध्याय में यज्ञ दान और तप के तीन-तीन प्रकार गुणों के अनुसार बतलाए गये हैं। अठारहवें अध्याय में सारी गीता का सूक्ष्म रूप में निचोड़ अर्थात सार दे दिया गया है और साथ ही यह भी डंके की चोट से कहा गया है जो जीव साधन सामग्री सम्पन्न नहीं कर सकते वह शरणागति का मार्ग अपना सकते हैं। इसके लिए भगवान ने अर्जुन से प्रण करके कहा है-
    
"हे अर्जुन ! तू सर्व धर्मों का त्याग कर केवल एक मेरी शरण ग्रहण कर ले मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। तू कोई चिन्ता न कर ।"
    
गीता इसलिए भी ज्ञान का सागर है कि थोड़े शब्दों में सारा ज्ञान वर्णन कर दिया गया है। अब जितना कोई गहरा गोता लगाता है उतने ही अधिक कीमती मोती उसको प्राप्त होते हैं।

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इस अनुपम ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह ज्ञान परमात्मा का स्वरूप है इसलिए अनन्त और अनिर्वचनीय है।
    
अन्त में प्रभु से प्रार्थना है कि मालिक हमें शक्ति प्रदान करें ताकि हम इस ज्ञान को जीवन में धारण कर सकें और आत्म- स्थितिवान होकर अपने सत् सरूप में समाये रहें ।

|| ओ३म ब्रह्म सत्यं ॥

- नरसिंहदास लो

अनमोल वचन

एक प्रेमी ने श्री महाराज महात्मा मंगत राम जी से प्रश्न किया- "श्री कृष्ण जी के मुख से अर्जुन को जो ज्ञान दिया इसके बारे में आपका क्या विचार है ?"
    
श्री महाराज जी ने उत्तर दिया- "प्रेमी जी ! जिस्म और जान के फलस्फे को एक कूजे में भरने वाला और अच्छी तरह से सुलझाने वाला यह एक लामिसाल (अद्वितीय) ग्रन्थ है । ऐसा ज्ञान कोई गृहस्थी जीव तीन काल नहीं दे सकता ।"
    
उसी प्रेमी ने फिर प्रश्न किया- "महाराज जी ! कृष्ण जी ने अपने आपको ख़ुदा (ईश्वर) करके सम्बोधित किया है। बार-बार ऐसा कहकर अर्जुन को समझाते रहे हैं ?"
    
श्री महाराज जी ने उत्तर दिया- "प्रेमी जी ! उसने अपने जिस्म को ख़ुदा नहीं कहा। उसने वाहिद जात अपने आप को हर समय समझा हुआ था। ऐसा ठोक-बजाकर किसी सत् पुरुष ने अपने आपको ब्रह्म सरूप नहीं कहा है। बार-बार आत्मा की तरफ इनका इशारा हुआ करता था। कृष्ण की स्थिति को कृष्ण बनकर ही जाना जा सकता है ।

(समता ज्ञान दीपक से)