Samtavad

|| ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार || 

श्री सद्गुरुदेव महात्मा मंगतराम जी महाराज

गुरु का वर्णन –

 

- गुरु शब्द का अर्थ यह है कि अन्धकार को नाश करने वाला। वास्तव में तो गुरु एक शब्द सरूप परमेश्वर ही है जो तमाम भ्रम अन्धकार से निर्मल है और तमाम भ्रम अन्धकार को नाश करने वाला है, अखण्ड प्रकाश घट-घट व्याप रहा है। उस परम तत्त को जब बुद्धि अनुभव करती है तबसब अन्धकार से वित्र होकर प्रकाश सरूप में लीन हो जाती है।

 

- सिर्फ ईश्वर प्राप्ति का रास्ता जानने वाले को गुरु नहीं कहते हैं, बल्कि ईश्वर सरूप में जो आनन्दित हुआ हो, वह असली गुरु है। सिर्फ रास्ता जानने से गुरु कहलाने का योग्य नहीं हो सकता है, जब तक कि वह अपनी सत् श्रद्धा और प्रेम भगति से अंतरगत में परमेश्वर में लीन न हो जावे।

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गुरु के स्वरूप का वर्णन –

 

- गुरु के रूप का वर्णन करना हो तो उन महागुणों का वर्णन करना चाहिए जिस पर कोई एतराज न कर सके। शारीरिक स्थिति तो हर जमाने में हर गुरु की, पीर अवतार की अलग अलग तरह की रही है मगर सबके अन्दर एक जैसे महान गुण निष्कामता, निर्मानता, उदासीनता, नेहचलता और पर उपकार आदि प्रकाश करते हुए पाए जाते हैं।

 

- सिर्फ ईश्वर प्राप्ति का रास्ता जानने वाले को गुरु नहीं कहते हैं, बल्कि ईश्वर सरूप में जो आनन्दित हुआ हो, वह असली गुरु है। सिर्फ रास्ता जानने से गुरु कहलाने का योग्य नहीं हो सकता है, जब तक कि वह अपनी सत् श्रद्धा और प्रेम भगति से अंतरगत में परमेश्वर में लीन न हो जावे 

 

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कामिल गुरु की पहचान –

 

- जो अपने आप में ही पढ़ा हुआ तो, यानी किताबी ज्ञान का जानने वाला न हो बल्कि मन कि किताब पढ़ा हुआ हो।

- मानसिक शान्ति का नमूना (आदर्श) हो।

- शरीर के मान और धन के लोभ से जो मुबर्रा (मुक्त)हो ।

- बैठक जिसकी बहुत हो ।

- स्त्रियों से तो कतई किनाराकश हो, यानी किसी हालत में भी अकेली स्त्री को पास न बैठाने वाला हो।

-निहायत दयालुचित्त हो ।

- वैराग्यवान जिसकी हर वक्त सीरत (स्वभाव) रहती हो, यानी जो लिप्त न हो।

- जो नौ दरवाजों की वासना से अतीत होकर सदा महा आकाश (अविनाशी शब्द ब्रह्म) में विराजमान रहता है। ऐसा आत्मनिष्ठ पुरुष परम गुरु है, क्योंकि उसने त्रैगुणी माया से अबूर (पार) पाकर विश्राम पाया है और वह दूसरों के लिए भी परम शिक्षक है। ऐसे गुरु में तत्काल विश्वास करना चाहिए। विश्वास या श्रद्धा के होते ही गुरु कृपा तेरे अन्दर अपने आप उतरने लगेगी और फिर गुरु कृपा से जो साधन प्राप्त होगा, उसकी कमाई करके तू उस शक्ति को समझने लगेगा जो तेरे शरीर से बिलकुल अलग है। तेरे शरीर में भय, भूख, प्यास, सरदी, गरमी, मरना, जीना इत्यादि विकार हैं, आत्मा इनसे परे है। जब तू उस आत्म स्वरूप में स्थित होगा तो किसी भी हालत में जीकर शान्त रहेगा। यानी जब तू साधन में लग जावेगा तो चाहे कैसी ही हालतों में से क्यों न गुजरे, शान्त रहेगा। बगैर साधन के तू ऐसा ही है जैसे पानी बिना घड़ा ।

 

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चेतावनी 

 

- ऐसे कथनी गुरु जो ईश्वर तत्त को प्राप्त नहीं हुए हैं, वे विद्या के मान में आकर बड़े बड़े अनर्थिक पाप कर्म करके खुद असली शान्ति को न प्राप्त हो सकते हैं और न ही शिष्यों को पापों से छुड़ा सकते हैं। यानी गुरु व शिष्य दोनों दुराचारी होकर लोक व परलोक दोनों को बिगाड़ देते हैं।

- जो कथनी ब्रह्म ज्ञानी हैं, और देह के मद में गिरफ्तार हैं, और शिष्यों से अपनी देह की पूजा करवाते हैं, वे शिष्यों का धन-माल लूटकर अपने भोगों में खर्च करते हैं। वे गुरु नहीं बल्कि धर्म के नाशक हैं और लिए दुनिया में पाप को फैलाने वाले हैं।

 

- जो कथनी मात्र अपने आपको कमी से विलग मानते हैं और शिष्यों को यह उपदेश करते हैं कि आत्मा निर्लेप है, पाप व पुण्य देह करके हैं, हम आत्म सरूप है, हमको कोई कर्म लेप नहीं कर सकता है। इस वास्ते हमारी करनी पर गौर न करों बल्कि तुम अपनी सत् श्रद्धा से गुरु को ब्रह्म सरूप जानकर पूजा करो। ऐसे कपटी गुरु इन्द्री भोगों की खातिर गुरुडम फैलाकर कई स्त्री और पुरुषों को चेले-चेलियाँ बनाकर खूब प्रकृति के भोगों का आनन्द हासिल करते हैं और तमाम धर्म की सत्ता को नाश कर देते हैं। उनके कथनी ज्ञान और पापयुक्त रहनी को विचार करके जनता दुराचारी हो जाती है और संसार में उपद्रव फैल जाता है और अत्यन्त कष्ट में हर एक जीव हो जाता है। कथनी गुरुओं की करनी का यह फल संसारी जीवों को प्राप्त होता है ।

 

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गुरु का फर्ज –

 

- ऐगुरु का फर्ज है कि शिष्य की कल्याण की खातिर अपना सब कुछ निछावर कर देवे और शिष्य का फर्ज है कि गुरु वचन में अपने आपको मिटा देवे। अगर ऐसा प्रेममयी सम्बन्ध होवे तो कल्याणकारी हैं। इसके उलट जो गुरु अपने दाब में रहता है। और शिष्य अपने दाय में, ऐसे निश्चय से कभी भी कल्याण नहीं हो सकती है।

 

- गुरु का फर्ज है कि कल्याण की खातिर। शिष्य का अधिकार शिष्य को देवे, न कि माया की खातिर शिष्य बनाये। अगर माया के प्रेम की खातिर जो शिष्य बनाता है, वह गुरु भी, और चेला भी कई जन्म अधम जूनियों को प्राप्त होते हैं।

 

- गुरु का फर्ज़ है कि निष्काम भावना से शिष्य का उद्धार करना और शिष्य से बिलकुल किसी वस्तु की चाहना न करनी। शिष्य का फर्ज है कि यथा शक्ति गुरु की सेवा करनी और सत् उपदेश द्वारा अपनी आत्मिक उन्नति का यत्न करना। जो गुरु लोक सेवा की खातिर शिष्य को हिदायत करते हैं और अपने आप जीवन को निर्मल करने का मुख्य धर्म समझते हैं, वह गुरु कल्याणकारी हैं। इसके उलट जो महज़ अपनी देह का ही स्वार्थ शिष्य से चाहते हैं, यह सब दम्भ है। ऐसा विचार कर लेना चाहिये।

 

- गुरु का फर्ज़ है कि शिष्य को उसकी बुद्धि के मुताबिक उपदेश देकर मार्ग पर उपकार पर दृढ़ करना और परमार्थ निश्चय परिपक्व करवाना, शारीरिक विकारों से निर्बन्ध करके उपदेश देकर ईश्वर विश्वासी बनाना, ऐसा धर्म में निश्चित कर देना कि फिर माया के मोह में न गिरफ्तार होवे गुरु और शिष्य का यह ही असली सम्बन्ध है ।

 

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कपटी गुरु –

 

- कपटी गुरु शिष्यों को जो उपदेश करते कि तमाम संसारी पदार्थ गुरुओं के वास्ते हैं इस वास्ते तुम सत श्रद्धा से गुरु सेवा करो, यह ही तुम्हारी कल्याण है यह सब पाखण्ड का जाल है। सब चीजें माया के चक्र में उत्पन्न होती हैं और नाश हो जाती हैं। गुरु व शिष्य के जो ताल्लुकात' हैं वे रूहानी ' हैं न कि महज़ संसारी पदार्थों की भेंट लेने का जाल हैं। यह निश्चय होना चाहिये।

 

- जो कपटी गुरु अपने चेले और चेलियों को यही हिदायत करते हैं कि गुरु की देह की पूजा करो, आरती करो, चर्णामृत लो और तमाम अपना धन-माल गुरु अर्पण गुप्त रूप में करो और बिलकुल दूसरे सत्संग में न जाओ, गुरु खुद तुम्हारी कल्याण करेगा, यह सब दम्भ है और धन लूटने का रास्ता है। इस अन्धकार परस्ती में न किसी की कल्याण हुई है और न ही होगी। बल्कि दीन दुनिया दोनों में ज़िल्लत व ख़्वारी' (अपमान व दुर्दशा) हासिल होती है।

 

- जो गुरु माया इकट्ठी करने की ख़ातिर या अपनी पूजा की खातिर अनेक जादू जन्तर-मन्तर इस्तेमाल करते हैं, और गुरुडम का जाल फैलाते हैं, और शिष्यों को हर वक्त गुरु भक्ति का उपदेश करते हैं, और हर तरीका की चालाकी करके शिष्यों पर रोब डालकर खूब अपने भोग हासिल करते हैं, ऐसे कपटी गुरु की सेवा नरक के देने वाली है। यह बिलकुल नादानी है कि कपटी गुरु से कोई कल्याण होवेगी। बल्कि धर्म का निश्चय ही नाश हो जावेगा। ऐसे गुरु का कोई श्राप नहीं लगता है। वह खुद अपनी खोटी भावना का फल पाता है। असली गुरु का अगर शरीर भी कोई नाश कर देवे, तो वह श्राप नहीं देवेगा। यह निश्चय कर लेवें ।

 

- जो गुरु अधिकारी शिष्य के बगैर परमार्थ की का उपदेश देते हैं, या कुंवारी कन्या और छोटे बच्चों को परमार्थ का उपदेश देते हैं, उसका नतीजा गुरुओं की बेइज़्ज़ती और धर्म का नाश है। क्योंकि जब तक सही श्रद्धा और समझ न होवे तब तक परमार्थ का उपदेश कल्याण नहीं दे सकता। इसके अलावा स्त्री उपदेश अपने पति के गुरु से, या पति की आज्ञा लेकर पति सहित गुरु से परमार्थ का उपदेश लेवे, तो वह दोनों के वास्ते सुखदाई है। अगर पति गुज़र गया होवे तो और किसी नज़दीक के रिश्तेदार को साथ लेकर परमार्थ का उपदेश गुरु से लेवे, तो सुखदाई है। इसके उलट अपनी मनमानी करके और बगैर पूरी पहिचान के जो स्त्री किसी गुरु से उपदेश लेती है, वह उसके वास्ते सफलता के देने वाला नहीं है, अपयशदायक है, और संसारी नीति के बरखिलाफ' है। और कुंवारी कन्या को गुरु धारण करना भी धर्म नीति के विरुद्ध है; और गुरु को कुंवारी कन्या को शिष्य बनाना भी योग्य नहीं है और जगत मर्यादा के प्रतिकूल है। इसका नतीजा धर्म की हानि और पाप का फैलाव है।

 

- जो गुरु स्त्रियों से अपनी आरती करवाते हैं, वह भी धर्म के विरुद्ध है। किसी हालत में भी अकेली स्त्री को नज़दीक न बैठने देवें और ज़्यादा अकेली स्त्रियों की संगत में, जिसमें कोई पुरुष न होवे, गुरु उपदेश न करे। इन नियमों के विरुद्ध जो गुरु चाल चलते हैं, यानी ज़्यादा स्त्रियों को उपदेश करते हैं और अपनी देह की आरती बग़ैरा करवाते हैं, वे एक दिन कलंक को पावेंगे और गुरु पद को नाश कर देवेंगे। ऐसी उलट धारणा से दुनिया में अधर्म प्रगट हो जावेगा। गुरु का फर्ज है कि परमार्थ बुद्धि वाले को परमार्थ का उपदेश करे और स्वार्थ बुद्धि वाले को शुद्ध आचरण का उपदेश देवे, जिससे हर एक जीव को अपनी बुद्धि के मुताबिक धर्म उपदेश सुनकर शाँति होवे ।

 

- जो गुरु जिह्वा की बहुत रसना चाहने वाला है, और पहनावे का बहुत शौकीन है, और अपनी कामना पूरी करने की ख़ातिर बहुरंग के विचित्र उपदेश देता है, और वह उपदेश उसके जीवन में मौजूद नहीं हैं, ऐसे कपटी गुरु के नज़दीक तक नहीं जाना चाहिये, इसका नतीजा कलंक और क्लेश है ।

 

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गुरु सार निर्णय –

 

- सार निर्णय यह है कि गुरु रहनी वाला अपने उद्धार आत्मा से शिष्य के कल्याण की खातिर हर वक्त सत् धर्म उपदेश शिष्य को देवे, और ॥ भली प्रकार करके शिष्य की उन्नति की ख़ातिर यतन करे, और चित्त में रचंक भी शिष्य से अपनी सेवा का भाव न रखे, यानी दयालु होकर हर वक्त कृपा करे। शिष्य का फ़र्ज़ है ऐसे उपकारी गुरु के वचन में अपने जीवन को मिटा देवे, और आज्ञाकारी पद हासिल करे। तब संसार में धर्म का सूरज प्रकाश होता है और सब जीव धर्मवान हो जाते हैं, ऐसी भावना ही असली कल्याणकारी है। ईश्वर गुरु को गुरु-पद का निश्चय देवे और शिष्य को शिष्य का अधिकार बख्शे। सब प्रेमी सत् बुद्धि द्वारा यह विचार निश्चय में धारण करें 

 

- गुरु पूर्ण रहनी वाला, पूर्ण कहनी वाला, पूर्ण सहनी वाला, और दृढ़ आसन वाला होवे तो वह कल्याणकारी है। यानी पूर्ण ज्ञान को पहचानने वाला होवे। और जो वचन कहे उस पर पूर्ण अमल करने वाला होवे अन्तर बाहिर एक ही भाव वाला होये। दुःख-सुख में अचल रहने वाला होवे और बैठक जिसकी बहुत होवे, और किसी वस्तु की चित्त में कामना जिसको न होवे। वह गुरु धर्म की मर्यादा को कायम करने वाला है और जीवों को कल्याण देने वाला है ।

 

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गुरु सरूप लखना –

 

शब्द तत्त गुरु मूरत पेख I

महमा गुरु की घट-घट देख II

 

इन्द्री -संजम गुर का व्यौहार I

शुद्ध-विवेक गुर का नित आहार II

 

पर उपकार गुर बस्तर ओढे I

निर्वास-गती अनुभव चित्त जोड़े II

 

दुःख-सुख परे सत्गुर बिराजे I

अकाल सरूप हो सरब निवाजे II

 

ज्ञान ध्यान खिमा संतोखा I

भगति प्रेम तत्त परस अनोखा II

 

अन्तरगत में गुर रहे लवलीना I

नित परकाश उपरस रस चीन्हा II

 

अडोल अचाहक गुर की रहनी I

सत्-परतीत है गुर की कहनी II

 

द्वन्द्व त्याग करनी गुर धारी धारी I

दीन भाओ गुर चरण विचारी II

 

आतम निश्चय गुर आरती पहचान I

अकल्प ध्यान चरण अमृत गुर जान II

 

आपा त्याग गुर पूजा सोध I

सरब हितकारी मन्तर गुर बोध II

 

पाँच पच्चीस से रहे अतीत I

गुर का धाम खोज गुणी मीत II

 

एह विध गुर की जो लखना करे I

सो शिष्य बौहड़ नहीं जन्मे मरे II

 

दुर्मत त्याग पद परसे निर्वाना I

गुर की महमा जिस करी पहिचाना II

 

ज्ञान गुरु का नित लखावे I

सो साजन परम-गत पावे II

 

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अखण्ड अछेद गुर धाम है, परमानन्द की खान I
"मंगत" जो लखना करे, सो तीन लोक परवान II

vani(audio)

गुरु की स्थिति और वास्तविक स्वरूप सत्संग सोमराज जी
गुरु की आवश्यकता सत्संग सोमराज गुप्ता जी द्वारा

वीडियो

श्री सतगुरुदेव मंगतराम जी महाराज का जीवन