Samtavad

Granths

||  समतावाद क्या है   ||

श्री सदगुरुदेव महात्मा मंगतराम जी महाराज

II ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार II

 

विचारशील जीव के अन्दर ऐसे प्रश्न पैदा होते हैं कि ये जीवन क्या है? ये संसार क्या है? जीवन में परिवर्तन और जन्ममरण का चक्कर क्या अर्थ रखते हैं? जीव की मानसिक हालत क्या है और इसकी तृप्ति किस प्रकार हो सकती है? ईश्वर किसको कहते हैं, उसका स्वरूप क्या है और उसके जानने के क्या साधन हैं ?

 

इन सभी प्रश्नों पर समय-समय पर आने वाले सत् पुरूषों ने अपने-अपने ढंग से बतलाया कि ईश्वर सत्य है, और उसे कई शब्दों से पुकारा, जैसे- अल्लाह, गाड, एक ओंकार, समता तत् आदि। सत्य को अनुभव करने के लिए जीवन की पवित्रता पर ज़ोर दिया। समय-समय पर आए सत् पुरूषों के वचन इसके प्रमाण हैं।

 

- जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ।

 

- जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और भूमण्डल पर आसुरी प्रकृति एवं अभिमानी पुरूषों की बढ़ोतरी हो जाती है, तब-तब मैं मानुष चोले में आता हूँ और सज्जनों के कष्ट और संकटों को निवारण करता हूँ।

 

- जब समता धर्म का प्रकाश लोप हो जाता है, उस वक्त फिर सत् पुरूष आकर अमली (कर्मनिष्ठ) ज़िन्दगी द्वारा प्रकाश दिखलाते हैं ।

 

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समतावाद के लक्ष्य एवं उद्देश्य 

-समता बहुत प्राचीन सिद्धान्त पर खड़ी है। लेकिन जीवन में इसका पालन सदा एक नई धारा है। समता सिद्धान्त जीवन में धारण करने के लिए है, न कि वाद-विवाद में पड़ने के लिए है।

 

- समतावाद हर मज़हब, पन्थ, सम्प्रदाय, जाति और देश के लोगों को समान रूप से देखता है।

 

- समतावाद - कोई मज़हब, पन्थ या गिरोह नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति को साथ लेते हुए कुदरती जीवन जीने की चाह रखने वाले लोगों का सार्वभौमिक, आध्यात्मिक संगठन मात्र है। हर व्यक्ति अपना परम्परागत विश्वास या मज़हब छोड़े बिना इसमें आकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति का पूरा-पूरा लाभ उठा सकता है।

 

- संगत समतावाद असली प्रेम और शान्ति प्राप्ति की संस्था है। इसकी बुनियाद सादगी, सत्य, सेवा, सत्संग और सत्-सिमरण पर खड़ी है। यह हर तरह के दिखावटी व बनावटी जीवन के विरूद्ध है।

 

- सत्य के मूलभूत सिद्धान्तों के पालन करने का हर प्रकार से प्रचार करना और हर धर्म सम्प्रदाय मत व पन्थ को समभाव से देखना।

 

- स्त्रियों से तो कतई किनाराकश हो, यानी किसी हालत में भी अकेली स्त्री को पास न बैठाने वाला हो।

 

-संगत के सदस्यों में इस बात का प्रचार करना कि वह अपना जीवन निर्विकारी बनावें तथा दूसरों का कल्याण चाहना, अपना मुख्य कर्त्तव्य समझें ।

 

 

II ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार II

 

- भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक व देशीय रीति-रिवाजों के तंग दायरे से जनता को आज़ाद कराना और उनको वाद-विवाद से छुटकारा हासिल कराना तथा निष्काम भाव से सत् कर्मों में जनता का दृढ़ विश्वास बढ़ाना।

 

-समभाव ही कल्याण है, समभाव ही जीव का वास्तविक स्वरूप है और परम धाम है। समभाव ही धर्म है। समभाव की प्राप्ति में यत्न करना ही गुरमुख मार्ग है।

 

-शरीर और शरीर की इन्द्रिगम्य समस्त वस्तुओं को नाशवान जानना और जिस सर्व आधार-भूत शक्ति के सहारे यह शरीर तथा समस्त संसार खड़ा है, केवल मात्र वह शक्ति ही सत्य है। ऐसा दृढ़ निश्चय से मानना और इसी सत्य की अनुभूति के लिए समता के पाँच मूल-भूत सिद्धान्त सादगी, सत्य, सेवा, सत्संग और सत - सिमरण पर मन-वचन और कर्म से दृढ़ रहना ।

 

- अहंकार ग्रसित जीव कभी भी पूर्ण शान्ति और सन्तुष्टि प्राप्त नहीं कर सकता। अहंकार ही सबसे बड़ी जड़ता और मूर्खता है, ऐसा समतावाद मानता है।

 

- समतावाद-सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सिद्धान्तों को तभी ठीक मानता है, जब तक उसका आधार आध्यात्मिक हो ।

 

-समतावाद - प्रेम, उदारता, सहनशीलता और मानसिक संयम पर बड़ा जोर देता है और इसके लिए एक शान्तिमय आन्दोलन के लिए जनता के उत्थान हेतु सर्वदा प्रयत्नशील है ।

 

 

II ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार II

 

- गुरु का फर्ज है कि कल्याण की खातिर। शिष्य का अधिकार शिष्य को देवे, न कि माया की खातिर शिष्य बनाये। अगर माया के प्रेम की खातिर जो शिष्य बनाता है, वह गुरु भी, और चेला भी कई जन्म अधम जूनियों को प्राप्त होते हैं।

 

- गुरु का फर्ज़ है कि निष्काम भावना से शिष्य का उद्धार करना और शिष्य से बिलकुल किसी वस्तु की चाहना न करनी। शिष्य का फर्ज है कि यथा शक्ति गुरु की सेवा करनी और सत् उपदेश द्वारा अपनी आत्मिक उन्नति का यत्न करना। जो गुरु लोक सेवा की खातिर शिष्य को हिदायत करते हैं और अपने आप जीवन को निर्मल करने का मुख्य धर्म समझते हैं, वह गुरु कल्याणकारी हैं। इसके उलट जो महज़ अपनी देह का ही स्वार्थ शिष्य से चाहते हैं, यह सब दम्भ है। ऐसा विचार कर लेना चाहिये।

 

- गुरु का फर्ज़ है कि शिष्य को उसकी बुद्धि के मुताबिक उपदेश देकर मार्ग पर उपकार पर दृढ़ करना और परमार्थ निश्चय परिपक्व करवाना, शारीरिक विकारों से निर्बन्ध करके उपदेश देकर ईश्वर विश्वासी बनाना, ऐसा धर्म में निश्चित कर देना कि फिर माया के मोह में न गिरफ्तार होवे गुरु और शिष्य का यह ही असली सम्बन्ध है ।

 

 

II ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार II

 

समता शब्द का अर्थ है, "एकता, मुसाबात पानी एकभाव । समता ज्ञान से अभिप्राय है "सर्वभाव में एक भाव का विचार ।"" इस एकरस सत्ता को शब्द अथवा ब्रह्म भी कहा गया है :

 

ब्रह्म शब्द जिसका न आदि है, न अन्त है; सबके अन्तर व्यापक और सबसे न्यारा है; तीन काल सम स्वरूप है [ उस] अलख, अपार, अनामी ईश्वर का स्मरण करना, ध्यान करना ही समताज्ञान को प्रकाशित करना है। तब सर्व स्वरूप एक नारायण हो दिखाई देता है ।

 

समता स्वरूप असली ब्रह्म शब्द है जो हर एक हालत में पूर्ण है और सबके अन्तर व्याप रहा है।

 

वह सम स्वरूप सत्ता सबमें समाकर भी सबसे अतीत है-वह इन्द्रियातीत, गुणातीत, कालातीत, अप्रमाण, नित्य शुद्ध, निर्विकार और परिपूर्ण आनन्द स्वरूप है।' उसके "जानने से सब कुछ जाना जाता है, भय और भ्रम सब नाश हो जाते हैं।"" वही जीव का असली ठौर है-उसका ठिकाना है। उसे पाकर ही जीव का कर्म पूर्ण होता है, उसकी कामना शान्त होती है।

 

समस्त चराचर संसार द्वन्द्वात्मक है। उत्पत्ति-प्रलय, कारण कार्य, एक-अनेक) यहां-वहां देश-विदेश जाता-शेष, मैं-तू आदि इन्द्रों का समूह हो संसार है। साथ में कोई भी भाव स्थिर नहीं है-वह नित्य हो अपने स्वभाव से च्युत होता रहता है । इस द्वन्द्वात्मक प्रपंच में एक ही सत्ता को देखना समताज्ञान हूँ । अर्थात् जब मनुष्य को प्रत्येक वस्तु में एक ही सत्ता के दर्शन होते हैं-जीवन- मृत्यु में तू, यहां-वहां, बूंद-समुद्र, कण-पर्वत, एक-अनेक में कोई भेद नहीं दिखाई बेता- सब एक रूप दिखाई देने लगते हैं, उस समय वह मनुष्य समतातत्त्व का जाता कहलाता है ।

 

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कहाँ से आया कहाँ नर जाए, कौन तेरो मुकाम |

'मंगल' सार विचारना, मानुष जनम का काम ||

ग्रन्थ श्री समता प्रकाश से वाणी एवम समता सत्संग 

01 समता मार्ग - प्रेमी श्री शिव नाथ जी द्वारा सत्संग
02 समता क्या है - प्रेमी शिव नाथ जी द्वारा सत्संग

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